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Wednesday, December 4, 2019

गयासुर - ३

पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस प्रकार गयासुर को भगवान विष्णु द्वारा मिले गए वरदान के कारण सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। इससे मुक्ति पाने के लिए समस्त देवता भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं और फिर श्रीहरि परमपिता ब्रह्मा को गयासुर का शरीर दान में मांगने का सुझाव देते हैं। तब ब्रह्मदेव गयासुर के पास जाकर यज्ञ हेतु उसके शरीर का दान मांगते हैं जो वो प्रसन्नतापूर्वक दे देता है। अब आगे... 

ब्रह्मदेव द्वारा अपना शरीर दान में मांगने के पश्चात गयासुर दक्षिण पश्चिम दिशा में पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके चरण दक्षिण दिशा की ओर तथा सर पश्चिम दिशा की ओर कोलाहल पर्वत पर जा गिरा। इस प्रकार १२५ योजन लम्बे और ६० योजन चौड़े उसके शरीर पर स्वयं ब्रह्मदेव यज्ञ करने को बैठे। उन्होंने यज्ञ करना आरम्भ ही किया था कि गयासुर का विशाल शरीर हिलने लगा। 

तब ब्रह्मदेव ने अपने तेज से ४० ऋत्विजों को उत्पन्न किया और उसे भी गयासुर के शरीर पर विराजमान होने को कहा। उनकी आज्ञा अनुसार वे ४० ऋत्विज गयासुर के शरीर पर बैठ गए किन्तु फिर भी उसका शरीर हिलता रहा। अब ब्रह्मदेव ने सभी देवताओं को गयासुर के शरीर पर विराजमान होने को कहा ताकि उसका शरीर स्थिर हो सके किन्तु सभी देवताओं के विराजित होने के बाद भी गयासुर का शरीर, विशेषकर सर हिलता ही रहा।

तब ब्रह्मदेव ने धर्मराज से कहा कि आपने जो महान शिला अपने लोक में रखी है जो वास्तव में आपकी पुत्री धर्मव्रता ही है, उसे लेकर गयासुर के सर पर रख दीजिये। तब उनकी आज्ञा के अनुसार धर्मराज ने धर्मपुरी में रखी शिलरूपी अपनी पुत्री धर्मव्रता को लाकर गयासुर के सर पर रख दिया। किन्तु वो धर्मात्मा उस अत्यंत पवित्र शिला के साथ भी हिलता रहा। 

अब ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। तब श्रीहरि ने अपने ही रूप से एक मूर्ति प्रकट की और उसे गयासुर पर रखने को कहा। साक्षात् विष्णु रुपी उस मूर्ति को भी जब गयासुर पर रखा गया तब भी उसका हिलना बंद नहीं हुआ। तब अंततः भगवान विष्णु ने महादेव से सहायता मांगी। तब महेश्वर ने कहा कि हम त्रिदेव स्वयं इस असुर पर स्थित होते हैं तभी ये स्थिर हो सकता है। 

तब ब्रह्मा अपने पाँच रूपों (प्रपितामह, पितामह, फल्ग्वीश, केदार एवं कनकेश्वर) में गयासुर पर बैठ गए। श्रीहरि अपने तीन रूपों (जनार्दन, पुण्डरीक एवं गदाधर) में गयासुर पर विराजे। अंत में भगवान शंकर अपने एक रूप के साथ गयासुर के शरीर पर विराजमान हुए। फिर श्रीहरि ने अपने गदा को गयासुर के सर पर रखी धर्मव्रता की शिला पर रखकर उसे स्थिर कर दिया। इसी कारण भगवान विष्णु का एक नाम गदाधर भी हुआ।

तब गयासुर ने कहा - "हे श्रीहरि! मुझे तो वरदान भी आपसे ही प्राप्त हुआ था। यज्ञ हेतु मैं अपना शरीर पहले ही भगवान ब्रह्मा को दान में दे चुका हूँ। फिर आप क्यों इस प्रकार मुझे अपनी विशाल गदा से प्रताड़ित कर रहे हैं? जब मैं अपना सब कुछ त्याग सकता हूँ तो क्या केवल आपकी आज्ञा पर स्थिर नहीं हो सकता? यदि आप, ब्रह्मदेव या महादेव में कोई भी मुझे केवल एक बार ही आज्ञा दे दे तो मैं स्थिर हो जाऊंगा।"

उसके ऐसे वचन सुनकर त्रिदेव बड़े प्रसन्न हुए और उसे स्थिर होने की आज्ञा दी। तब गयासुर उनकी आज्ञानुसार स्थिर हो गया। उसकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर त्रिदेवों से उसे वरदान माँगने को कहा। तब गयासुर ने कहा - "हे परमेश्वर! अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे ये वरदान दीजिये कि जब तक सृष्टि रहे तब तक आप त्रिदेव मुझपर स्थित रहें। ये महान तीर्थ मेरे नाम पर जाना जाये। मुझपर स्थित सभी देवता यहाँ मूर्ति रूप में रहें और इस स्थान पर सच्चे मन से पूजा करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति हो।"

तब त्रिदेवों ने उसे ऐसा ही वरदान दिया और तभी से ५ कोस में फैला वो तीर्थ "गयातीर्थ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त ब्रह्मदेव ने सभी ऋत्विजों को गया नगर, ५५ गांव, कल्पवृक्ष और कामधेनु प्रदान की और सबको आज्ञा दी कि वे कभी किसी से कुछ मांगे नहीं। किन्तु बाद में कुछ ब्राह्मणों ने लोभवश वहाँ यज्ञ कर दक्षिणा मांगी। तब ब्रह्मदेव ने श्राप देकर उनका सब कुछ छीन लिया। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे रोते हुए जीविका का साधन माँगा। तब ब्रह्मदेव ने कहा कि वे गयातीर्थ पर आने वाले यात्रियों के दान पर जियें।

त्रिदेवों सहित गयासुर के सर पर स्थित शिलरूपी धर्मव्रता "प्रेतशिला" के नाम से प्रसिद्ध हुई। आज भी जो कोई भी तीर्थों में श्रेष्ठ गयातीर्थ में सच्ची श्रद्धा से पूजा करता है उसे त्रिदेवों सहित सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये जो तस्वीर इस लेख में लगाई गयी है उसे बड़ा कर अवश्य देखें। इसमें गयासुर और सभी देवताओं का वर्णन किया गया है। जय गयातीर्थ।


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