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Thursday, December 26, 2019

माता अरुंधति - १

भगवान शिव और माता पार्वती के बाद अगर आदर्श गृहस्थ जीवन का कोई बेहतरीन उदाहरण है तो वो महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी माता अरुंधति का ही है। वास्तव में श्रीराम से बहुत काल पहले महर्षि वशिष्ठ ने ही एकपत्नीव्रत का उदाहरण स्थापित किया था और कदाचित यही कारण था कि उनकी शिक्षा के आधार पर श्रीराम ने भी इसी व्रत का पालन किया।

ब्रह्मा के दाहिने अंग से स्वयंभू मनु उत्पन्न हुए और उनके वाम भाग से शतरूपा। इन्ही दोनों से मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। दोनों से दो पुत्र - प्रियव्रत एवं उत्तानपाद एवं तीन पुत्रियाँ - आकूति, देवहूति एवं प्रसूति हुई। आकूति रूचि प्रजापति एवं प्रसूति दक्ष प्रजापति से ब्याही गयी। देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम से हुआ और इन दोनों की १० संतानें हुई जिनमे से अरुंधति एक थी। एक पुत्र - कपिल एवं नौ पुत्रियाँ - कला, अनुसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुंधति एवं शांति।

माता अनुसूया के बारे में एक लेख पहले ही धर्मसंसार पर प्रकाशित हो चुका है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। माता अरुंधति इन्ही अनुसूया की छोटी बहन थी और अपनी बहन की भांति ही महान सती थी। इनका विवाह आगे चल कर महर्षि अत्रि से हुआ। महर्षि वशिष्ठ से विवाह करने के लिए इन्हे घोर तप करना पड़ा था और उस तप की प्रेरणा भी इन्हे महर्षि वशिष्ठ से ही मिली थी।

वास्तव में अरुंधति पूर्वजन्म में स्वयं ब्रह्मदेव की कन्या संध्या थी। संध्या ने अपने पिता से उपदेश माँगा जिसपर परमपिता ब्रह्मा ने उन्हें तप करने का आदेश दिया। अपने पिता की आज्ञा पाकर संध्या चन्द्रभाग पर्वत के निकट बृहल्लोलित सरोवर के तट पर पहुँची। किन्तु उन्हें ये पता नहीं था कि किसकी तपस्या करे और तपस्या किस प्रकार करनी चाहिए। वे उसी चिंता में उसी सरोवर के निकट बैठ गयी।

उसी समय भ्रमण करते हुए महर्षि वशिष्ठ वहाँ पहुँचे और एक कन्या को इस प्रकार बैठे देख कर उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा। तब संध्या ने उन्हें अपना परिचय दिया। महर्षि वशिष्ठ को देख कर संध्या के मन में उनके लिए अनुराग पैदा हो गया जिसे महर्षि वशिष्ठ ने अपने तपोबल से जान लिया। तब उन्होंने संध्या से कहा कि "हे देवी! आप और हम दोनों परमपिता ब्रह्मा की संतानें है इसी कारण हमारा विवाह तो संभव नहीं है किन्तु अगर तुम परमपिता के कहे अनुसार घोर तप करो तो अगले जन्म में हमारा साथ संभव है।

ये सुनकर संध्या ने उनसे कहा - "हे महर्षि! पिताश्री के आदेशानुसार मैं यहाँ तप के लिए ही आयी थी किन्तु मुझे पता नहीं कि मुझे किसकी तपस्या करनी चाहिए और उसे किस प्रकार करना चाहिए। अतः आपको गुरु मान कर मैं आपसे ही उसका उपाय पूछती हूँ। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करे कि मैं किसकी और किस प्रकार तपस्या करूँ? उसी से मेरे उद्विग्न मन को शांति मिलेगी।"

तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - "भद्रे! जो इस संसार के मूल कारण हैं उन्ही भगवान विष्णु की तुम तपस्या करो। उनसे तुम्हे मन चाहे वर की प्राप्ति होगी। तप के पहले छः दिनों तक भोजन मत करना। सिर्फ तीसरे और छठे दिन रात्रि को कुछ पत्ते खा कर जल पी लेना। उसके बाद जल का भी त्याग कर देना। तुम्हारी ऐसी तपस्या से भगवान श्रीहरि अवश्य ही प्रसन्न होंगे।" ये कहकर महर्षि वशिष्ठ वहाँ से चले गए।

उनके बताये हुए विधि से संध्या भगवान नारायण की घोर तपस्या करने लगी। उन्होंने चार युगों तक श्रीहरि की घोर तपस्या की और अंततः उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए। उन्हें अपने समक्ष देख कर संध्या अवाक् रह गयी। उसमें उतनी भी शक्ति नहीं बची थी कि वो खड़े होकर उन्हें प्रणाम कर पाती। उसकी ऐसी भक्ति देख कर नारायण ने उसे स्वस्थ कर दिया और पूछा कि वो किस कारण ऐसी घोर तपस्या कर रही थी? तब संध्या ने उनसे तीन वर मांगे:
  1. किसी भी जीव में जन्म लेते ही काम की भावना ना हो।
  2. मैंने जिनकी कामना की है वो ही मुझे पति रूप में प्राप्त हो और मेरा पतिव्रत अखंड रहे।
  3. मेरे पति के अतितिक्त और कही भी मेरी सकाम दृष्टि ना हो और उनके अतिरिक्त जो कोई भी मुझे सकाम भाव से देखो वो तत्काल नपुंसक हो जाये।
तब श्रीहरि ने प्रसन्न होकर कहा - "पुत्री! तुमने उचित वरदान माँगा है। मैं तुम्हे वर देता हूँ कि अगले जन्म में  तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हे पति प्राप्त होगा और तुम दोनों कल्प के अंत तक जीवित रहोगे। कोई अन्य पुरुष अगर तुमपर काम दृष्टि डालेगा तो वो तत्काल नपुंसक हो जाएगा। आज के पश्चात किसी भी जीव में जन्म लेते ही काम भावना जाग्रत नहीं होगी। मनुष्य की चार अवस्थाओं - बाल्य, कौमार्य, यौवन एवं वृद्धावस्था में से अन्य तीन में तो काम भावना जाग्रत हो पायेगी किन्तु बाल्यावस्था में नहीं।"

"अब तुम जाओ और चन्द्रभाग पर्वत के निकट महर्षि मेघतिथि १२ वर्षों से यज्ञ कर रहे हैं जो आज समाप्त होने वाला है। उसी यज्ञ की अग्नि में तुम अपने शरीर का त्याग करो। मेरे आशीर्वाद से तुम अग्नि की कन्या बन जाओगी और कोई तुम्हे देख नहीं पायेगा।" ये कहकर श्रीहरि ने अपने चरणों से संध्या को स्पर्श किया जिससे वो यज्ञ के हविष्य के रूप में बदल गया और वो अदृश्य हो गयी। उसके पश्चात श्रीहरि अंतर्ध्यान हो गए।

...शेष


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