पिछले लेख में आपने रानी चोला देवी और उनके पति मंगलसेन के विषय में पढ़ा। किस प्रकार रानी के उद्यान का विध्वंस करने वाले शूकर का वध मंगलसेन करते हैं जो वास्तव में चित्ररथ नामक गन्धर्व थे जो ब्रह्मदेव का श्राप भोग रहे थे। मंगलसेन के हांथों उन्हें अपने श्राप से मुक्ति मिल जाती है और वे उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोक लौट जाते हैं। अब आगे...
चित्ररथ को उसके श्राप से मुक्त कर राजा मंगलसेन अपने राज्य की ओर लौट चले। उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और उनका अश्व भी श्रमित था इसीलिए वे मार्ग में एक सरोवर पर रुक गए। वहाँ उन्होंने देखा कि बहुत सारी स्त्रियाँ सरोवर के किनारे धार्मिक कार्यों में व्यस्त हैं। तब उसने उनसे पूछा कि आप लोग किस की पूजा कर रहीं हैं? तब उन स्त्रियों ने बताया कि हम माता महालक्ष्मी की पूजा कर रहे हैं।
ये सुनकर राजा मंगलसेन वही महालक्ष्मी की कथा को सुनने के लिए बैठ गए। कथा सुन कर और उस व्रत का पालन कर उन्हें अनंत पुण्य की प्राप्ति हुई। उन स्त्रियों ने राजा की सुरक्षा के लिए राजा की भुजा पर महालक्ष्मी का सिद्ध कवच भी बांध दिया। फिर राजा प्रसन्नतापूर्वक अपने राज्य वापस लौट आये। उन्होंने जो पुण्य अर्जित किया था उसका समाचार देने वो सबसे पहले रानी चोला देवी के पास पहुँचे।
राजा मंगलसेन ने अपनी कथा अपनी दोनों पत्नियों, चोला रानी और चिल्ल रानी को सुनाई किन्तु चोला रानी को उनकी कहानी पर विश्वास ना हुआ। जब चोला रानी ने राजा की भुजा पर बंधा डोरा देखा तो उन्हें लगा कि किसी अन्य स्त्री ने उन्हें प्रेम पूर्वक ये धागा बांधा है। ये सोच कर उन्होंने सोते हुए राजा की भुजा से वो डोरा तोड़ कर फेंक दिया किन्तु चिल्ल रानी ने उसे श्रद्धा पूर्वक अपने पास रख लिया।
महालक्ष्मी की कृपा से राजा मंगलसेन पुनः महालक्ष्मी का पूजन करने को सज्ज हुए किन्तु वो धागा अपने हाथ पर बंधा ना देख कर व्यथित हुए। तब चिल्ल रानी ने उन्हें वो धागा दिया और बताया कि किस प्रकार चोला रानी ने उसे फेंक दिया था। ये सुनकर मंगलसेन चोला रानी पर बड़े रुष्ट हुए और चिल्ल रानी से अत्यंत प्रसन्न होकर उनके साथ ही महालक्ष्मी का पूजन किया।
उसके अगले दिन माता लक्ष्मी एक वृद्धा का रूप धर पहले चिल्ल रानी के पास पहुँची जिन्होंने उनका बड़ा सत्कार किया। उसे आश्रीवाद देकर वे चोला रानी के पास पहुंची किन्तु चोला रानी ने उनका अपमान कर वहाँ से उन्हें जाने को कहा। ये देख कर माता लक्ष्मी अपने असली रूप में आ गयी और उसे श्राप दिया - "हे अभिमानी रानी! तुझे वृद्ध का सम्मान करना नहीं आता। मैं तो यहाँ तुझे ऐश्वर्य प्रदान करने आयी थी पर तूने मेरा अपमान किया। इसीलिए जा जिस शूकर का वध तेरे पति ने किया था, तेरा मुख भी उसी शूकर के समान हो जाये।"
माता का ऐसा श्राप पाते ही रानी चोला देवी शूकरी मुख की हो गयी। उन्हें अपनी भूल का पछतावा हुआ और उन्होंने माता के चरण पकड़ कर क्षमा मांगी। तब माँ लक्ष्मी ने कहा - "तू तत्काल महर्षि अंगिरस के आश्रम जा। वो तुझे मेरे श्राप से मुक्ति का उपाय बताएँगे। तब माता की आज्ञानुसार चोला रानी महर्षि अंगिरस के आश्रम पहुँची और उनसे अपनी व्यथा कही।
महर्षि अंगिरस ने कहा - "पुत्री! माता के श्राप को तो माता के व्रत द्वारा हो समाप्त किया जा सकता है। इसीलिए तू उसी महान व्रत को कर जिसे तेरे पति ने किया था।" उनकी आज्ञा के अनुसार रानी चोला देवी ने माता महालक्ष्मी का व्रत पूरी श्रद्धा से किया जिससे उन्हें उनके श्राप से मुक्ति मिली और राजा मंगलदेव ने उन्हें पुनः अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। फिर दोनों महर्षि अंगिरा का आशीर्वाद लेकर अपने राज्य लौट आये।"
इस प्रकार इस कथा को युधिष्ठिर को सुना कर श्रीकृष्ण ने कहा - "हे भ्राता! इस पवित्र कथा का जो भी श्रवण करता है उसे उसके पापों से मुक्ति मिल जाती है।" तब युधिष्ठिर के मन में भी उस व्रत को करने की इच्छा हुई और उन्होंने अपने भाइयों और पत्नी के साथ उस पवित्र व्रत को किया। जय माता महालक्ष्मी।
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